लघु कथा- कोई खोज न खबरिया
लेखक- अनिल कुमार ‘अलीन’

यह कोई कहानी नहीं, एक हकीकत है। एक ऐसी हकीकत जो जिंदा इंसानों के कान में दहकता हुआ लावा बनकर प्रवेश करती है और आँखों में अँगारे बन शरीर में बिजली की तरह दौड़ती है। एक ऐसी कहानी जो केवल आज की हकीकत के सामने दम तोड़ती है। यह मर चुका हमारा समाज गुनहगार है, इस कहानी के पात्रों के जो दुनिया के हर कोने में भूख और प्यास से अक्सर दम तोड़ जीवंत करते रहते हैं इन कहानियों को जिसे कोई मुझ जैसा प्रेम गीत सृजित करने वाला लिखने को मजबूर हो जाता है।
पूरे देश दुनिया में असुलझी पहेली बनकर एक महामारी फैली हुई थी। जो लोगों को अनचाहें मौत की तरफ़ धकेल रही थी। एक तरफ अमीर वर्ग लाईलाज बीमारी से डरा हुआ था तो दूसरी तरफ मजदूर और मेहनतकशों की आजीविका पर लॉक डाउन ने ताला लगा रखा था। राशन के अभाव में भूख काल बनकर सर पर ताण्डव कर रही थी। जिससे बचने के लिए भूखे मेहनतकश अपना पेट दोनों हाथ से दबाये हुए अपने झोपड़ियों के किसी कोने में दुबके पड़े हुए थे। ऐसा ही एक आदिवासी परिवार शहर से दूर एक जंगल में झोपड़ी बनाकर रहता था। जिसकी आजीविका पेड़ की सुखी टहनियों को बेच कर चलती थी। परिवार में बुड्ढे दम्पत्ति ( फिरतु माझी और बासमती माझी) अपनी 9 वर्ष की पोती चिरैया के साथ रहते थे। जिनके बेटे और बहू को कुछ साल पूर्व मोब्लिंचिंग में लोगों की भीड़ ने लाठी-डंडों से पीट-पीट मार दिया। दरअसल बेटे और बहू शहर लकड़ी बेचने गए थे। उस दिन देर रात हो गयी, कोई खरीददार नहीं मिला। अतः शहर के एक छोटे से पार्क के कोने में लकड़ी के गट्ठल को रखकर बिना खाये हैंडपम्प का पानी पीकर सो गये। आधी रात को पड़ोस के लोग चोर की तलाश में लाठी-डण्डा लेकर पार्क में पहुँचे और बिना सोचे समझे, उक्त नौजवान दम्पत्ति को लाठी-डण्डों से पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। फिर उसी लकड़ी के गट्ठल पर लिटाकर जिंदा जला दिया। इससे पहले की पुलिस आती सब जलकर राख हो चुका था। पुलिस के हाथों कुछ नहीं लगा। ऊधर जंगल में बुड्ढे दम्पत्ति अपनी पोती के साथ इस इंतज़ार में हैं कि उनके बुढ़ापे का सहारा एक दिन आएगा। बेटे-बहू तो नहीं आये महामारी जरूर आ गयी जो अपने साथ उनके लिए भूख और अटूट मुसीबतें लेकर आयी। तीन दिन हो गए थे। फिरतु और बासमती के गले के नीचे अन्न का दाना गए हुए। झोपड़ी में जो कुछ था उसे जान से प्यारी अपनी नन्हीं से पोती चिरैया को खिला दिए। भूख के कारण दोनों बुड्ढे दम्पत्ति की हालत बिगड़ गयी और बीमार पड़ गए। झोपड़ी में खाने को एक दाना भी नहीं, भला दवा कहाँ से आये। ऊपर से शहर बहुत दूर। 9 बर्ष की बच्ची को अपने दादी-दादा का यह हाल नहीं देखा गया। वह जंगल से कुछ सुखी टहनियाँ बिन छोटा सा गट्ठल बनाकर उसे बेचने के लिए तपती दोपहरी में निकल पड़ी। 5 घँटे के सफर के बाद गिरते-लड़खड़ाते किसी तरह वह शहर पहुँची। किन्तु शहर के चौराहे पर पुलिस वालों ने महामारी के चलते उसे घर वापस जाने को कहा। इससे पहले की वह कुछ बोल पाती थकान से मूर्च्छित होकर वही गिर गयी। पुलिस वालों ने उसे पानी पिलाया और कुछ पानी की छींटें उसके चेहरे पर मारी तो होश आया। होश आने पर अपनी समस्या के बारे में पुलिस वालों को अवगत कराकर फिर बेहोश हो गयी। लुँह में डूबी उस बच्ची का बुरा हाल हो गया था। पुलिस वाले बहुत ही नेक दिल इंसान । उन्होंने चिरैया को डॉक्टर को दिखाए। शाम को 5 बजने वाले थे। चिरैया को होश आया तो वह पहले से बेहतर थी। पुलिस वालों ने चिरैया के दादा-दादी के लिए दवा खरीद के साथ-साथ कुछ पैसे और राशन भी दिए। उन्होंने ने कहा बेटा पास के मंदिर में आराम कर लो, सुबह उठकर घर चले जाना। चिरैया मंदिर के बरामदे के कोने में जाकर सो गयी। आधी रात को उस मासूम चिरैया का मंदिर के पुजारी और उसके दो मुस्टंडों ने बर्बरता से बलात्कार पत्थरों से उसके चेहरें को कुर्रतापूर्वक कूचकर उसके लहुँलुहान शरीर को एक बड़े पत्थर से बाँधकर मंदिर के तालाब के तलहटी में दबा दिए। सुबह-सुबह वही पुलिस वाले गश्त पर निकले तो मंदिर पहुँचे और बाबा से चिरैया की खबर पूछी। उस बहरूपिये बाबा ने उनसे कहा कि बेटा वह तो सुबह जल्दी उठकर अपने घर चली गयी। पुलिस वाले यह सोचकर खुश हुए कि चिरैया अपने घर पहुँच गयी होगी। इस घटना को बीते तीन महीने हो चुके थे। पुलिस वालों ने सोचा चिरैया से मिल आये। अतः वे चिरैया द्वारा बताए पते पर जंगल की तरफ निकल पड़े। जंगल में जाकर उन्होंने देखा कि एक टूटी-फूटी झोपड़ी पड़ी है। झोपड़ी के अंदर गए तो बुड्ढे दम्पत्ति के कंकाल पड़े हुए थे। किंतु चिरैया का कुछ पता नहीं था, कोई खबर नहीं थी। आज भी चिरैया की खोज जारी है। यदि आपके आस-पास ऐसी कोई चिरैया हो तो हमे जरूर बताइएगा….बस इंतजार में हूँ। चिरैया फिर खुले आसमान में एक दिन निडरता के साथ उड़ेगी…इसी उम्मीद के साथ…😢😢😢🙏🙏🙏अनिल कुमार ‘अलीन’

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