लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, सन 1904 ई. में वाराणसी के मुगलसराय नामक स्थान पर एक अत्यंत साधारण कायस्थ परिवार में हुआ था। डेढ़ वर्ष की अवस्था में पिता का स्वर्गवास होने पर इनका लालन-पालन नाना के घर पर हुआ।
लाल बहादुर शास्त्री का जीवन गरीबी में ही बीता था, किंतु गरीबी उनकी आत्मा को कुचल नहीं पाई, अपितु इससे उनका आत्मबल बढ़ा और आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा मिली। शास्त्री जी ने स्वावलंबन का पाठ बचपन से ही पढ़ लिया था। वे अपने कपड़े स्वयं धोते तथा अपने जूतों की मरम्मत भी वे स्वयं करते थे। वे अपने घर से आठ मील दूर अध्ययन हेतु विद्यालय जाते थे। कभी-कभी पैसे पास न होने पर विद्यालय के लिए नदी में तैरकर जाते थे। पढ़ने लिखने में वे खूब परिश्रम करते थे। उनके व्यवहार से उनके शिक्षक बहुत प्रसन्न रहते थे। उनके जीवन की अनेक ऐसी घटनाएँ हैं, जो उनके व्यक्तित्व की गरिमा को व्यक्त करती हैं। उनमें से कुछ प्रसंगों का उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा।
प्रथम घटना उस समय की है जब वे उत्तर प्रदेश के गृह यातायात मंत्री थे। एक दिन घर लौटने पर उन्होंने देखा कि घर की पिछली दीवार तोड़कर कूलर लगाया जा रहा है। घर के बच्चे इसलिए आनंदित थे कि अब उन्हें ग्रीष्म की तपती लू से झुलसना नहीं पड़ेगा, किंतु शास्त्री जी ने दृढ़ता से कह दिया कि उन्हें कूलर की आवश्यकता नहीं है। वे कहते थे कि मंत्रियों का जीवन सादगी और त्यागयुक्त होना चाहिए।
वह केंद्र सरकार में रेल मंत्री थे। उनके कार्यकाल में एक रेल दुर्घटना हुई। इसके लिए उन्होंने स्वयं को दोषी माना तथा नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र दे दिया। लालबहादुर शास्त्री के जीवन पर महात्मा गांधी का गहरा प्रभाव था।गांधी जी के नेतृत्व में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। इस संघर्ष ने उनके अंदर दृढ़ता और आत्मविश्वास कूट-कूटकर भर दिया। वे सत्ता में रहे या सत्ता से बाहर, परंतु कभी अपने सिद्धांतों से पीछे नहीं हटे।
प्रधानमंत्री के रूप में अठारह माह में ही उन्होंने सबका मन मोह लिया। उनके राजनैतिक विरोधी भी उनके प्रशंसक बन गए। वह युद्ध के नहीं शांति के पुजारी थे। रूस की पहल पर पाकिस्तान ने जब समझौते की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने ताशकंद में शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। भारत माँ का वीर सपूत 10 जनवरी, 1966 में ताशकंद में ही चिरनिद्रा में सो गया। सारे देश ने आँसू भरी आँखों से इस वीर नायक को अंतिम विदाई दी।
26 जनवरी, 1966 ई. को एक विशेष समारोह में भारत के इस लाल को तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित कर देश की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित की।आज भारत का यह निष्काम कर्मयोगी हमारे बीच में नहीं है, किंतु उनका हिमालय-सा उन्नत, निर्मल और त्यागमय व्यक्तित्व हमें उनके पद चिह्नों पर चलने के लिए निरंतर प्रेरित करता रहेगा।