भारत की राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय की गणना का प्रथम प्रयास दादा भाई नौरोजी ने वर्ष 1867-68 ई. में किया था । नौरोजी के आकलन के अनुसार वर्ष 1868 ई. में प्रति व्यक्ति आय 20 रुपये थी। एफ सिर्रास ने वर्ष 1911 ई. में प्रति व्यक्ति आय 49 रुपये बताया। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व इस दिशा में प्रथम आधिकारिक प्रयास वाणिज्य मंत्रालय (आर्थिक सलाहकार कार्यालय) द्वारा किया गया । वर्ष 1949 ई. में भारत सरकार द्वारा नियुक्त राष्ट्रीय आय समिति का अध्यक्ष पी. सी. महालनोबिस थे। डॉ. आर. गाडगिल तथा वी. के. आर. वी. राव इस समिति के सदस्य थे।

किसी भी अर्थव्यवस्था में एक वर्ष के दौरान उत्पादित अंतिम वस्तुओं (Final goods) तथा सेवाओं का मूल्य राष्ट्रीय आय कहलाता है। भारत में राष्ट्रीय आय के आँकड़े वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च पर आधारित हैं। भारत में सांख्यिकी विभाग के अंतर्गत केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (स्थापना-मई, 1951 ई.) राष्ट्रीय आय के आकलन एवं प्रकाशन के लिए उत्तरदायी हैं। इस कार्य में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन की मदद करता है।

  साइमन कुजनेट्स को राष्ट्रीय आय लेखांकन का जन्मदाता माना जाता है जिन्हें इसके लिए नोबेल पुरस्कार मिला।

 राष्ट्रीय आय ( National income )कितनी भागो में परपारभासीत किया गया है?

राष्ट्रीय आय तीन भागो में परपारभासीत किया गया है।

राष्ट्रीय आय की लागत(cost of national income) किसी अर्थव्यवस्था की आय यानी इसकी कुल उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य की गणना या तो साधन लागत (Factor Cost-FC) पर की जा सकती है। या फिर बाजार लागत (Market Price-MP) पर।

साधन लागत (Factor Cost):यह मूलतः निवेश की गई लागत होती है जिसे उत्पादक उत्पादन प्रक्रिया के दौरान लगाता है। जैसे पूँजी की लागत, ऋणों पर ब्याज, कच्चा माल, श्रम, किराया, बिजली आदि । अर्थात किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन में उपभोग या प्रयुक्त उत्पादक कारकों के सम्पूर्ण मूल्य को साधन लागत (Factor Cost) कहा जाता है। इन वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादक, उत्पादन के दौरान इन कारकों के लागत का आकलन करते हैं, इसके बाद उस वस्तु या सेवा का मूल्य निर्धारित किया जाता है।

 : साधन लागत में सरकार को भुगतान किये गये कर को शामिल नहीं किया जाता है क्योंकि यह प्रत्यक्ष तौर पर उत्पादन प्रक्रिया में शामिल नहीं होता है परन्तु कोई अनुदान (Subsidies) प्राप्त की जाती है तो उसे साधन लागत में शामिल किया जाता है।

बाजार लागत (Market Price) बाजार लागत वह मूल्य है जिसे एक उपभोक्ता द्वारा किसी वस्तु एवं सेवा को खरीदते समय किसी विक्रेता को अदा करता है। बाजार लागत वस्तु एवं सेवा की साधन लागत पर अप्रत्यक्ष कर (सेनवेट, केन्द्रीय उत्पाद शुल्क, सीएसटी आदि) जोड़ने के बाद निकाली जाती है। यानी बाजार मूल्य पर पहुँचने के लिए साधन लागत में सरकार को भुगतान किये गये कर को शामिल किया जाता है जबकि सरकार द्वारा दी गई अनुदान को साधन लागत में से घटा दिया जाता है क्योंकि साघन लागत निर्धारण के समय ही उसकी गणना कर ली जाती है।

मूल्य वर्धन की धारणा का अर्थ क्या है?

मूल्य वर्धन की धारणा (Concept of value added) : राष्ट्रीय उत्पाद या घरेलू उत्पाद का सही मूल्य निकालने के लिए जिससे कोई वस्तु तथा सेवा दोहरी गणना में न आए यानी माध्यमिक वस्तुओं या प्रयुक्त आगतों को आकलन में आने से रोकने के लिए हम जिस विधि का प्रयोग करते हैं उसे ही मूल्य वर्धन विधि कहते हैं। मूल्य वर्धन किसी उत्पादक इकाई द्वारा उत्पादित उत्पाद की इकाई के बाजार मूल्य में उस उत्पादक इकाई के अंशदान को प्रदर्शित करता है। सकल मूल्य वर्धन (GVA) को सामान्यतया उत्पाद के मूल्य माध्यमिक वस्तुओं के उपभोग के रूप में परिभाषित किया जाता है।मूल्यवर्धन उत्पादन प्रक्रिया में श्रम पूँजी तथा अन्य साधनों के योगदान को प्रदर्शित करता है और जब हम इसमें उत्पाद पर लगे करों के मूल्य को जोड़ देते हैं तथा उसमें से उत्पाद अनुदान को घटा देते हैं, तो सभी निवासी उत्पादक इकाइयों के ऐसे मूल्यवर्धनों का योग ही जीडीपी होता है, अतः किसी भी राष्ट्र का जीडीपी सकल मूल्यवर्धनों (GVA) का योग होता है। (जिसमें ह्रास नहीं निकाला गया है पर कर तथा अनुदान का समायोजन किया गया है।)

भारत आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय आय की गणना साधन लागत (Factor Cost) पर किया करता था। जनवरी, 2015 से केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (CSO) द्वारा राष्ट्रीय आय की गणना बाजार मूल्य (Market Price) पर की जा रही है जो वास्तव में बाजार लागत (Market Cost ) पर ही है। सकल मूल्य वर्द्धन (Gross Value Added-GVA) में उत्पाद करों को शामिल करने के बाद बाजार मूल्य ज्ञात होता है। उत्पाद कर केन्द्र एवं राज्यों के अप्रत्यक्ष कर हैं।

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