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रदीफ़ अलिफ़ ( अ )

1

नक्श फ़रियादी है किस की शोखी-ए-तहरीर का काराजी है पैरहन हर पैकरे-तस्वीर का

कावेकावे सख्त जानी-हाय तनहाई न पूछ सुबह करना शाम का, लाना है जूए-शीर का

आगही दामे- शुनीदन” जिस क़दर चाहे बिछाए मुद्दआ अन्का है अपने आलमे-तकरीर का

2

जुज कैस10 और कोई न आया बरूए-कार” सहरा मगर ब-तंगी-ए-चश्मे-हसूद था

था ख्वाब में ख़याल को तुझ से मुआमला जब आँख खुल गई न जियाँ था न सूद था

ढाँपा कफ़न ने दाग्रे-अयूबे-बरहनगी मैं वर्ना हर लिबास में नँगे-वजूद था

3

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया दिल कहाँ कि गुम कीजे, हमने मुद्दआ पाया

इश्क़ से तबीयत ने जीस्त का मजा पाया दर्द की दवा पाई, दर्दे-लादवा पाया

सादगी-ओ-पुरकारी, बेखुदी-ओ-हुशियारी हुस्न को तग़ाफुल में जुर्रत आजमा पाया

गुँचा: फिर लगा खिलने, आज हमने अपना दिल खूँ किया हुआ देखा, गुम किया हुआ पाया

हाले-दिल नहीं मालूम लेकिन इस क़दर यानी हमने बारहा ढूँढ़ा, तुम ने बारहा पाया

शोरे-पदे-नासेह ने जख्म पर नमक छिड़का आप से कोई पूछे, तुमने क्या मजा पाया

4

दिल मिरा सोज़े-निहाँ से बेमहावा जल गया आतिशे ख़ामोश के मानिन्द गोया जल गया

दिल में जौक़-वस्लो-यादे- यार तक बाक़ी नहीं आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया

अर्ज कीजे जौहरे-अन्देशा की गर्मी कहाँ  कुछ ख़याल आया था वहशत का कि सहरा जल गया”

दिल नहीं, तुझको दिखाता वर्ना दाग़ों की बहार इस चिराग़ां का करूँ क्या कारेफ़र्मा जल गया

मैं हूँ और अफ़सुर्दगी’ की आरजू ‘ग़ालिब’ कि दिल देखकर तर्ज़े-तपाके-अहले दुनिया  जल गया

5

शौक़ हर रंग रक्क़ीबे-सरो-सामाँ निकला फ़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियाँ निकला

जख़्म ने दाद न दी तंगी-ए-दिल’ की यारब तीर भी सीना-ए-बिसमिल’ से पर अफ़शाँ निकला

बू-ए-गुल’ नाला-ए-दिल’ दूदे चिराग़-महफ़िल ” जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला

दिल में फिर गिरया’ ने इक शोर उठाया ‘ग़ालिब’ आह जो क़तरा न निकला था तो तूफ़ाँ निकला

6

धमकी से मर गया, जो न बावे-नवर्द था इश्क़-नवर्द पेशा तलबगारे – मर्द था”

था जिन्दगी में मर्ग का खटका लगा हुआ उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग जर्द था

जाती है कोई कशमकश अन्दोहे-इश्क़ की दिल भी अगर गया तो वहीं दिल का दर्द था

अहबाब चारासाजी-ए-वहशत न कर सके जिन्दाँ” में भी ख़याले बयाबाँ-नवर्द था.

ये लाशे-बेकफ़न ‘असदे’ -ख़स्ताजाँ की है हक़ मग़फ़रत करे अजब आज़ाद मर्द था

7

दहर में नक्शे-वफ़ा वजहे-तसल्ली न हुआ है ये वो लफ़्ज़ कि शरमिन्दा-ए-मानी न हुआ

मैंने चाहा था कि अन्दोहे-वफ़ा से छूढूँ वो सितमगर मेरे मरने पे भी राजी न हुआ

हूँ तेरे वादा न करने पे भी राजी कि कभी गोश मिन्नतकशे-गुलबाँगे- तसल्ली न हुआ

किससे महरूमी-ए-क्रिस्मत’ की शिकायत कीजे हमने चाहा था कि मर जाएँ सो वो भी न हुआ

मर गया सदमा-ए-यक-जुबिशे-लब से ‘ग़ालिब’ नातवानी से हरीफ़े-दमे-ईसा न हुआ

8

सताइशगर है जाहिर इस कदर, उस बाग़-रिजवाँ का ” वो इक गुलदस्ता है हम बेखुदों के ताके-निसवाँ का?

दिखाऊँगा तमाशा दी अगर फुरसत ज़माने ने मेरा हर दागे-दिल एक तुख़्म है सर्वे-चिराग़ा का

मेरी तामीर में मुज़िमर’ है एक सूरत ख़राबी की हयोला वक्रे-खिरमन का है खूने-गर्म-दहकों का

उगा है घर में हरसू सब्जा, वीरानी! तमाशा कर मदार’ अब खोदने पर घास के है मेरे दरबों का

खमोशी में निहाँ, खूँ-गश्ता लाखों आरजूएँ हैं चिरागे-मुर्दा हूँ मैं बेज़बाँ गोरे-ग़रीबों का

बग़ल में ग़ैर की आज आप सोए हैं कहीं वर्ना सबब क्या ख़्वाब में आकर तबस्सुमहा ए-पिनहाँ का

नहीं मालूम किस-किस का लहू पानी हुआ होगा क़यामत है सरश्कालूदा होना? तेरी मिज़गाँ का

नज़र में है हमारी जाद-ए-राहे-फ़ना ग़ालिब कि ये शीराज़ा है आलम के अज़्ज़ा-ए परीशा का

9

महरम” नहीं है तू ही नवाहा-ए-राज का याँ वरना जो हिजाब’S है, पर्दा है साज़ का

तू और मैं और दुख सू-ए-ग़ैर नजरहा-ए-तेज-तेज तेरी मिज़ाहा-ए-दराज का

काविश’ का दिल करे है तकाज़ा कि है हनोज’ नाखुन पे क़र्ज़ उस गिरहे-नीमबाज़ का

ताराजे काविशे-ग़मे-हिज्राँ हुआ ‘असद’ सीना कि था दफ़ीना गुहरहा-ए-राज का

10

मुहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बेदिमाग़ी है। कि मौजे-बूए-गुल’ से नाक में आता है दम मेरा

बक़द्रे-ज़फ़ है साक़ी खुमारे-तश्नाकामी भी जो तू दरिया-ए-मय है तो मैं, ख़मयाज़ा हूँ साहिल का

11

बज़्मे-शाहँशाह में अशआर का दफ्तर खुला रखियो यारब, यह दरे गँजीना-ए-गौहर’ खुला

गरचे हूँ दीवाना पर क्यों दोस्त का खाऊँ फ़रेब आस्तीं में दशना पिनहाँ हाथ में नश्तर खुला

गो न समझे उसकी बातें गी न पाऊ उसका भेद पर ये क्या कम है कि मुझसे वो परी पैकर

है ख़याले हुस्न में हुस्न-अमल का-सा खयाल खुल्द’ इक दर है मेरी गोर’ के अन्दर खुला

मुँह न खुलने पर है वो आलम कि देखा ही नहीं जुल्फ़ से बढ़कर निक़ाब उस शोख़ के मुँह पर खुला

दर पर रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया जितने अर्से में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला

क्यों अँधेरी है शबे-ग़म, है बलाओं का नजूल’ आज उधर ही को रहेगा दीदा-ए-अख्तर खुला

क्या रहूँ गुरबत’ में खुश जब हो हवादिस का ये हाल नामा लाता है वतन से नामाबर अक्सर खुला

उसकी उम्मत’ में हूँ मैं, मेरे रहें क्यों काम बन्द वास्ते जिस शह के ‘ग़ालिब’ गुंबदे- बेदर’ खुला

12

एक-एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब ख़ूने-जिगर वदीअते- मिज़गाने -यार था”

गलियों में मेरी लाश को खँचे फिरे कि मैं जाँ दादहे हवा -ए -सरे- रहगुज़ार था’

कम जानते थे हम भी ग़मे-इश्क़ को पर अब देखा तो कम हुए पे ग़मे-रोजगार था

13

 बसके दुशवार है हर काम का आसाँ होना आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्साँ होना

गिरया’ चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की दरो- दीवार से टपके है बयाबाँ होना

वाए दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझको आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना

की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा हाय उस जूदे-पशेमाँ का पशेमाँ होना

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना

14

दोस्त ग़मख्वारी में मेरी सअई” फ़र्माएँगे क्या? जख्म के भरने तलक नाखुन न बढ़ आएँगे क्या?

बेनियाजी हद से गुजरी बंदापरवर कब तलक! हम कहेंगे हाले-दिल और आप फ़र्माएँगे क्या?

हजरते-नासेह गर आएँ दीदा-ओ-दिल फ़र्शे-राह कोई मुझको ये तो समझा दे कि समझाएँगे क्या?

आज वाँ तेग़ो-क़फ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं उज्ज्र’ मेरे क़त्ल करने में वो अब लाएँगे क्या?

गर किया नासेह ने हमको क़ैद अच्छा यूँ सही ये जुनूने-इश्क़’ के अन्दाज़ छुट जाएँगे क्या?

ख़ानाज़ादे-जुल्फ़ हैं” जंजीर से भागेंगे क्यों ? हैं गिरफ़्तारे-वफ़ा ज़िन्दा से घबराएँगे क्या?

है अब इस मामूर’ में क़हते-ग़मे-उलफ़त ‘असद? हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खाएँगे क्या?

15

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाले-यार होता अगर और जीते रहते यही इन्तिज़ार होता

तेरे वादे पे जिए हम तो ये जान, झूट जाना कि खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता

तेरी नाजुकी से जाना कि बँधा था अहद बोदा कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे-नीमकश को ये ख़लिश’ कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह कोई चारासाज” होता, कोई ग़मगुसार होता

रंगे-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार’ होता

ग़म अगर्चे जाँगुसल है 10 पे कहाँ बचें कि दिल है ग़मे-इश्क़ गर न होता, ग्रमे रोजगार” होता

कहूँ किससे मैं कि क्या है शबे-ग़म बुरी बला है। मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

हुए मरके हम जो रुसवा, हुए क्यों न ग्र-दरिया” न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मजार होता

ये मसाइले-तसव्वुफ़” ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’ तुझे हम वली” समझते जो न बादह-वार” होता

16

हवस को है निशाते-कार क्या-क्या ? न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या?

नवाजिश-हाए-बेजा देखता हूँ शिकायत-हाए-रंगीं का गिला क्या?

बला-ए-जाँ है ‘ग़ालिब’ उसकी हर बात इबारत’ क्या, इशारत’ क्या, अदा क्या ?

17

दरखुरे-क़हरो-ग़जब जब कोई हम-सा न हुआ फिर ग़लत क्या है कि हम-सा कोई पैदा न हुआ

बन्दगी में भी वो आज़ाद- -ओ-खुदबीं हैं कि हम उलटे फिर आयें दरे-काबा” अगर वा” न हुआ

कम नहीं नाज़िशे-हमताई-ए-चश्मे-ख़ू बाँ2 तेरा बीमार बुरा क्या है गर अच्छा न हुआ

सीने का दाग़ है वह नाला13 कि लब” तक न गया ख़ाक़ का रिज़्क़ 15 है वो क़तरा कि दरिया न हुआ

हर बुने-मू से दमे-जिक्र न टपके खूँनाव’ हमज़ा’ का क़िस्सा हुआ इश्क़ का चर्चा न हुआ

क़तरा में दजला दिखाई न दे और जुज्य में कुल’ खेल लड़कों का हुआ दीदा-ए-बीना’ न हुआ

थी ख़बर गर्म कि ‘ग़ालिब’ के उड़ेंगे पुर्जे देखने हम भी गये थे पै तमाशा न हुआ

18

न हो हुस्ने-तमाशा दोस्त रुसवा बेवफ़ाई का ब-मुहरे-सद-नज़र साबित है दावा पारसाई का

न मारा जानकर बेजुर्म क़ातिल ! तेरी गर्दन पर रहा मानिन्दे-ख़ूने-बेगुनह हक़ आशनाई का

वही इक बात है जो याँ नफ़स वाँ नकहते-गुल’ है चमन का जलवा है बाइस मेरी रँगी नवाई का

न दे नामे” को इतना तूल’ 2 ‘ग़ालिब’ मुख़्तसर कर दे कि हसरत-संज हूँ अर्जे-सितमहाए-जुदाई का

19

ले तो सोते में उसके पाँव का बोसा मगर ऐसी बातों से वो काफ़िर बदगुमाँ हो जाएगा

दिल को हम सरफ़े-वफ़ा’ समझे थे क्या मालूम था यानी ये पहले ही नजे-इम्तिहाँ हो जाएगा

सबके दिल में है जगह तेरी जो तू राजी हुआ मुझ पे गोया इक जमाना मेहरबाँ हो जाएगा

बाग़ में मुझको न ले जा वर्ना मेरे हाल पर हर गुले तर एक चश्मे-खुफिशों हो जाएगा

 बाए गर मेरा तेरा इन्साफ़ महशर’ में न हो अब तलक तो ये तवक़्को’ है कि वाँ हो जाएगा

फ़ायदा क्या सोच आख़िर तू भी है दाना” असद’ दोस्ती नादाँ की है जी का जियाँ हो जाएगा

20

दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

जमअ करते हो क्यों रक़ीबों को इक तमाशा हुआ गिला न हुआ

हम कहाँ क़िस्मत आजमाने जाएँ तू ही जब खँजर-आजमा न हुआ

कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक्क्रीब’ गालियाँ खाके बेमजा न हुआ

है ख़बर गर्म उनके आने की आज ही घर में बोरिया न हुआ

क्या वो नमरूद की खुदाई थी बंदगी में मेरा भला न हुआ

जान दी, दी हुई उसी की थी हक़ तो ये है, कि हक़ अदा न हुआ

ज़ख़्म गर दब गया, लहू न थमा काम गर रुक गया रवा न हुआ

कुछ तो पढ़िये, कि लोग कहते हैं आज ‘ग़ालिब’ ग़ज़लसरा न हुआ

21

गिला है शौक़ को दिल में भी तंगि-ए-जा का गुहर में महव हुआ इज़्तिराब दरिया का?

दिल उसको पहले ही नाज़ो-अदा से दे बैठे हमें दिमाग़ कहाँ’ हुस्न के तक़ाज़ा का

फ़लक को देखके करता हूँ उसको याद ‘असद’ जफ़ा में उसकी है अन्दाज़ कारफ़र्मा का

22

एतिबारे इश्क़ की ख़ानाख़राबी देखिए ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ

23

मैं और बज़्मे-मै1 से यूँ तश्नाकाम’ जाऊँ गर मैंने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था?

है एक तीर जिसमें दोनों छिदे पड़े हैं वो दिन गये कि अपना दिल से जिगर जुदा था

दरमान्दग़ी॰ में ‘ग़ालिब’ कुछ बन पड़े तो जानूँ जब रिश्ता बेगिरह था नाखुन गिरह-कुशा था?

24

घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता बहर अगर बहर न होता तो बियाबाँ होता

तंगि-ए-दिल’ का गिला क्या, ये वो काफ़िर दिल है कि अगर तंग न होता तो परीशाँ होता

25

न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता

हुआ जब ग़म से यूँ बेहिस तो ग़म क्या सर के कटने का न होता गर जुदा तन से तो जानू पर धरा होता

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है वो हर एक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता

26

बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़दाहा-ए-गुल कहते हैं जिसको इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का

सौ बार बन्दे-इश्क़ से आज़ाद हम हुए पर क्या करें कि दिल ही उर्दू’ है फ़राग़ का,

27

वो मेरी चीने-जबीं’ से ग़मे पिनहीं समझा राजे-मकतूब-ब-बेरब्ती-ए-उनवाँ समझा

शरहे-असबाबे-गिरफ्तारी-ए-ख़ातिर मत पूछ इस क़दर तंग हुआ दिल कि मैं ज़िदां  समझा

सफ़रे-इश्क़ में की ज़ोफ़ ने राहत-तलबी’ हर क़दम साये को मैं अपने शबिस्ताँ समझा

दिल दिया जान के क्यों उसको वफ़ादार ‘असद’ ग़लती की कि जो काफ़िर को मुसलमां समझा

रदीफ़ ‘बे’ (ब)

28

फिर हुआ वक्त कि हो बाल कुशा मौजे-शराब’ ये बते- मै को मिलो-दस्ते शना मौजे-शराब

पूछ मत, वजहे-सियह मस्ति-ए अर्वाबे-चमन’ साय-ए-ताक में होती है, हवा, मौजे-शराब

जो हुआ ग़र्का-ए-मै”, बख़्ते-रसा रखता है? सर से गुजरे पे भी, है बाले हुआ, मौजे-शराब

है ये बर्सात का मौसम, कि अजब क्या है, अगरहै मौजे-हस्ती को करे फ़ैज़े-हवा’, मौजे-शराब

होश उड़ते हैं मिरे, जल्व-ए-गुल० देख, असद फिर हुआ वक़्त, कि हो बाल कुशा मौजे-शराब

रदीफ़ ‘ते’ (त)

काफ़ी है निशानी तिरी, छल्ले का न देना ख़ाली मुझे दिखला के, ब वक्ते-सफ़र’ अंगुश्त

लिखता हूँ असद, सोज़िशे-दिल से’, सुख़ने-गर्म’ ता रख न सके कोई मिरे हर्फ़ अंगुश्त’

29

रहा गर कोई ता कयामत, सलामत फिर इक रोज़ मरना है, हज़रत सलामत

जिगर को मिरे इश्के लिखे है खुदाबन्दे खूंनाब मशरब नेमत सलामत

अलगमे मुबारक – दुश्मन, शहीदे मुबारक, सलामत वफ़ा हूँ सलामत

30

मुंद गईं खोलते ही खोलते आँखें, ग़ालिब यार लाये मिरी बालीं पे10 उसे, पर किस वक़्त !

31

ऐ दिले-ना-आक़बत- देश जब्ते-शौक़ कर कौन ला सकता है ताबे-जलवा-ए-दीदारे-दोस्त

इश्क़ में बेदादे-रश्के-ग़ैर ने मारा मुझे कुश्ता-ए-दुश्मन हूँ आख़िर गरचे था बीमारे दोस्त

ग़ैर यूँ करता है मेरी पुरसिश उसके हिज्ज’ में बेतकल्लुफ़ दोस्त हो जैसे कोई ग़मख्वारे दोस्त

ताकि मैं जानूँ कि है उसकी रसाई वाँ तलक मुझको देता है पयामे-वादा-ए-दीदारे- दोस्त’

चुपके-चुपके मुझको रोते देख पाता है अगर हँस के करता है बयाने शोख़ी-ए-गुफ़्तारे-दोस्त’

रदीफ़ ‘जीम’ (ज)

लो हम मरीजे-इश्क़ के तीमारदार हैं । अच्छा अगर न हो तो मसीहा का क्या इलाज ?

रदीफ़ ‘दाल’ (द)

हुस्न ग़मज़े की कशाकश में छुटा मेरे बाद बारे आराम से हैं अहले-जफ़ा मेरे बाद

शमअ बुझती है तो उसमें से धुआँ उठता है शोला-ए-इश्क़ सियहपोश हुआ मेरे बाद

खूँ है दिल ख़ाक में अहवाले – बुताँ पर यानी उनके नाख़ून हुए मुहताजे – हिना मेरे बाद

ग़म से मरता हूँ कि इतना नहीं दुनिया में कोई कि करे ताज़ियते-मेहरो-वफ़ा ‘ मेरे बाद

आए है बेकसी-ए-इश्क़’ पे रोना ‘ग़ालिब’ किसके घर जाएगा सैलाबे-बला मेरे बाद?

रदीफ़ ‘रे’ (र)

नजर में खटके है बिन तेरे घर की आबादी हमेशा रोते हैं हम देख कर दरो-दीवार

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नजर में खटके है बिन तेरे घर की आबादी हमेशा रोते हैं हम देख कर दरो-दीवार

घर जब ना बना लिया तेरे दर पर कहे बग़ैर जानेगा अब भी तू न मेरा घर कहे बगैर

कहते हैं जब रही न मुझे ताक़ते-सुखन जानूँ किसी के दिल की मैं क्यों कर कहे बग़ैर

काम उससे आ पड़ा है कि जिसका जहान में लेवे न कोई नाम सितमगर कहे बग़ैर

जी में ही कुछ नहीं है, हमारे, वरना हम सर जाए या रहे, न रहें पर कहे बग़ैर

छोडूंगा मैं न उस बुते-काफ़िर का पूजना छोड़े न ख़ल्क गो मुझे काफ़िर कहे बग़ैर

मक़सद है नाजो-ग़मजा वले गुफ्तगू में काम चलता नहीं है दशना-ओ-ख़जर कहे बग़ैर

हरचन्द हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तगू बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर

बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तफ़ात सुनता नहीं हूँ बात मुकर्रर कहे बग़ैर

‘ग़ालिब’ न कर हुज़ूर में तू बार-बार अर्ज जाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर

33

क्यों जल गया न ताबे-रुखे-यार देखकर जलता हूँ अपनी ताक़ते-दीदार देखकर

आतिश-परस्त कहते हैं अहले-जहाँ मुझे सरगर्म नालाहा-ए-शररबार देखकर

आता है मेरे क़त्ल को पर जोशे रश्क से मरता हूँ उसके हाथ में तलवार देखकर!”

जुन्नार 12 बाँध सबहा-ए-सद-दाना 13 तोड़ डाल रहरौ 14 चले है राह को हमवार देखकर

इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं जी खुश हुआ है राह को पुरख़ार देखकर

सर फोड़ना वो ‘ग़ालिबे’ -शोरीदा-हाल का? याद आ गया मुझे तेरी दीवार देखकर

34

है बसकि हर इक उनके इशारे में निशाँ और करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और

यारब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबाँ और

तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म ? जब उठेंगे ले आएँगे बाज़ार से जाकर दिलो-जाँ और

हरचन्द सुबक-दस्त हुए बुत-शिकनी में हम हैं तो अभी राह में है सँगे-गिराँ और

है ख़ूने-जिगर जोश में दिल खोल के रोता होते जो कई दीदा-ए-खूँनाब फ़िशाँ और

लेता, न अगर दिल तुम्हें देता, कोई दम चैन करता, जो न मरता, कोई दिन आहो-फुग़ाँ और

 मरता हूँ इस आवाज़ पे, हरचंद सर उड़ जाय जल्लाद को, लेकिन वो कहे जायं, कि हाँ और

पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले रुकती है मेरी तबअ’ तो होती है रवाँ और

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अन्दाज़े-बयाँ और

35

जुनूँ की दस्तगीरी किससे हो, गर हो न उरयानी गरेबाँ चाक का हक़ हो गया है मेरी गर्दन पर

असद’ बिसमिल’ है किस अन्दाज़ का क़ातिल से कहता है कि मश्क़-नाज़ कर ख़ूने-दो-आलम मेरी गर्दन पर

36

‘लाजिम’ था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और तनहा गए क्यों अब रहो तनहा कोई दिन और

मिट जाएगा सर गर तेरा पत्थर न घिसेगा हूँ दर पे तेरे नासियाफ़रसा कोई दिन और

आए हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊँ माना कि हमेशा नहीं अच्छा, कोई दिन और

जाते हुए कहते हो कयामत को मिलेंगे क्या खूब! कयामत का है गोया कोई दिन और

तुम माहे-शबे-चारदहम’ थे मेरे घर के फिर क्यों न रहा घर का वो नक्शा कोई दिन और

नादाँ हो जो कहते हो कि क्यों जीते हो ‘ग़ालिब’ क़िस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और

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