संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे kabir das ke dohe

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Kabir Ji ke dohe

कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु।।

आदि जुगादी सगल भगत ता को सुखु बिस्रामु ।।

अर्थ

: कबीर कहते हैं मेरी जीभ पर जो राम का नाम बसा हुआ है, वही मेरी जपने की माला है, जब से यह दुनिया या सृष्टि बनी है तभी से सभी भगत जन यही नाम जपते आए हैं और उसका (राम का) नाम ही उनके (भगतों) लिए सुख-शांति का कारण बना है।

कबीर मेरी जाति कउसभुको हसनेहारु।

 बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिओ सिरजनहारु। I

पद अर्थ

: कबीर कहते हैं कि प्रत्येक प्राणी मेरी जाति पर हँसता था और मज़ाक का पात्र थी, पर अब मैं इस जाति पर बलिहारी जाता हूँ, क्योंकि इस जाति में पैदा होकर मैंने ईश्वर की बंदगी की है और आत्मिक सुख पाया है।

कबीर डगमग किआ करहि कहा डुलावहि जीउ।

 सरब सूख को नाइको राम नाम रस पीउ।। ।।

पद अर्थ

कबीर कहते हैं कि ईश्वर के नाम लेने से क्यों डरता है क्यों इधर-उधर भटकता है, क्यों डोलता है। ईश्वर के नाम का अमृत पी, जो कि सभी सुखों का प्रेरक है, ईश्वर ही सभी सुखों का दाता है।

कबीर कंचन के कुंडल बने ऊपरि लाल जड़ाउ।

दीसहि दाधे कान जिउ जिन मनि नाही नाउ।॥

पद अर्थ

: कबीर कहते हैं कि सोने के कंगन तथा लाल जड़े हुए कुंडल कानों में पहनने से ईश्वर की अराधना नहीं होती, यदि मन में परमात्मा का नाम नहीं है या अंतर्मन में ईश्वर का वास नहीं है, तो यह कुंडल सरकंडे की तरह थोथे प्रतीत होते हैं जो बाहर से तो चमकते नज़र आते हैं पर अंदर से ख़ाक होते हैं।

कबीर औसा एकु आधु जो जीवत मिरतकु होइ ।

निरभै होइ कै गुन रवै जात पेखउ तत सोइ ।।।।

कबीर कहते हैं कि ऐसा कोई विरला ही मनुष्य होता है जो दुनियावी सुखों से बेपरवाह हो, चाहे सुख मिले या दुःखइस बात की परवाह नहीं करते हुए परमात्मा के गुण गाए व जिसे परमात्मा हर तरफ़ नज़र आता है, वह जिधर देखता है उसे ईश्वर ही नजर आता है।

कबीर जा दिन हउ मूआ पाछै भइआ अनंदु ।

मोहि मिलिओ प्रभु आपना संगी भजहि गोबिंदु ।।।।

: कबीर कहते हैं कि जब से मेरा ‘मैं’ (अहं) समाप्त हुआ है, तब से मेरे अंतर्मन को शांति व सुख का अनुभव हुआ है 10 और मुझे अहसास हुआ है कि मेरा ईश्वर मुझे मिल गया है, मेरे मन में बस गया है, जिससे मेरी सभी ज्ञान इंद्रियाँ भी ईश्वर के ध्यान में रम गई हैं।

कबीर सभ ते हम बुरे, हम तजि भलो सभु कोइ।

 जिनि औसा करि बूझिआ, मीतु हमारा सोइ।।।।

पद अर्थ

: कबीर कहते हैं कि अहं ‘मैं’ सबसे बुरा है और अहं के Toc तजते ही सब लोग भले हो जाते हैं, अच्छे हो जाते हैं,अत: अहं ही सबसे बुरा है। प्रत्येक जीव मुझसे अच्छा है, जिस जिस ने इस अहं को त्यागने की प्रवृत्ति पा ली है, या ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह मुझे अपना मित्र जान पड़ता है।

कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेस।

 हम राखे गुर आपने उनि कीनो आदेसु।।।।

पद अर्थ

कबीर कहते हैं कि अहंकार जैसे सभी को भ्रमित करता है,मेरे पास भी कई तरह से,तरह-तरह के लुभावने वेश बनाकर आया, पर मुझे मेरे सतगुरु ने उससे बचा लिया। इसलिए मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

कबीर सोई मारिए जिह मुऐ सुखु होइ ।

 भलो-भलो सभु को कहै बुरो न मानै कोइ ।। ।।

कबीर कहते हैं कि अहंकार को मारना ही चाहिए, क्योंकि इसको मारने से सबको सुख मिलता है, अहं को त्यागने को प्रत्येक जीव अच्छा समझता है, सराहना करता है, कोई भी मनुष्य इसका त्याग करने को बुरा नहीं समझता।

कबीर राती होवहि कारीआ कारे उभै जंत।।

 लै अर्थ उठि धावते, सि जानि मारे भगवंत।। ।।

कबीर कहते हैं कि अँधेरी रातों में, चोर आदि व्यभिचारी, बुरे काम करनेवाले बंदे दूसरों के घरों को लूटने के लिए उठ खड़े होते हैं, परंतु ऐसे लोग यकीनन ईश्वर द्वारा मारे गए होते

संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे

कबीर चंदन का बिरवा भला बेढ़िओ ढाक पलास।।

ओइ भी चंदन होइ रहे बसे जु चंदन पासी । ।।

कबीर कहते हैं कि चंदन का छोटा सा बूटा भी अच्छा ही है, चाहे वह ढाक पलास जैसे व्यर्थ के वृक्षों से घिरा हुआ ही क्यों न हो। उसके अपने आस-पास उगे बेकार के वृक्ष भी चंदन हो जाते हैं।

कबीर बांसु बडाई बूडिआ, इिउ मत डूबहु कोइ ।।

चंदन कै निकटे बसै, बासु सुगंधु न होइ।। ।।

कबीर कहते हैं कि बाँस का पौधा जो अपने ऊँचे-लंबे होने के अहंकार में ही डूबा रहता है, वह बाँस चाहे चंदन के पेड़ के आस-पास ही उगा हो, लेकिन उसमें चंदन की सुगंध नहीं आती, इसलिए किसी को भी बाँस की तरह अहंकार में डूबे नहीं रहना चाहिए।

कबीर दीनु गवाइआ दुरनी सिउ न चाली साथि ॥

पाइ कुहाड़ा मारिआ गाफलि अपुनै हाथि।। ।।

कबीर कहते हैं कि गाफ़िल मनुष्य ने दुनिया के चक्कर में (मायामोह) आकर अपना दीन गवाँ लिया और अंत में यह दुनिया भी उसके साथ न चल सकी। यूँ लापरवाह बंदे ने खुद ही अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मार ली अर्थात् माया मोह में फँसकर खुद का ही नुकसान कर लिया।

कबीर जह जह हउ फिरिओ कउतक ठाओ ठाइ।।

इक राम सनेही बाहरा ऊर्जरु मेरे भाइ ।। ।।

कबीर कहते हैं कि मैं जहाँ-जहाँ भी गया हूँ, वहाँ हर जगह दुनिया के रंग-तमाशे ही देखे हैं, लोग इन रंग-तमाशों में ही फँसे हुए हैं। मेरे लिए ऐसी जगह उजाड़ जंगल ही तरह है जहाँ प्रभु, परमात्मा को प्यार करनेवाले नहीं हैं, वहाँ दुनिया ही दुनिया है, दीन का नामोनिशान नहीं है।

कबीर संतन की झुगीआ भली भठि कुसती गाउ।।

आगि लगउ तिउ धउलहर जिह नाही हरि को नाउ।।।।

कबीर कहते हैं कि साधु-संत की बेकार सी कुटिया भी अच्छी लगती है, किसी बेईमान मनुष्य के महल से, जो कि जलती भट्टी जैसा लगता है। वहाँ हर वक्त माया, मोह, तृष्णा की आग जलती रहती है। जिस महल हवेली में परमात्मा का नाम नहीं जपा जाता, वहाँ मेरे जाने आग लगे मुझे परवाह नहीं, मुझे ऐसे महल की जरूरत नहीं।

कबीर संत मूए किआ रोईऐ जे अपुने ग्रहि जाइ ।।

 रोवहु साकत बापुरे जु हाटै हाट बिकाइ ।। ।।

हैं कि किसी संत की मृत्यु पर रोने की, अफसोस करने की जरूरत नहीं क्योंकि वह संत तो अपने ही घर जा रहा है, ईश्वर के घर, वही उसका अपना घर है, प्रभु के चरणों में। यदि किसी की मृत्यु पर अफ़सोस करना है, रोना है, तो उस बदनसीब की मृत्यु पर रोओ जो प्रभु के चरणों से बिछुड़ा हुआ है और जो अपने बुरे कर्मों की वजह से जगह जगह बिकता फिरता है। अर्थात् इस दुनिया की खातिर भटकता रहा और अब कई जन्मों तक भटकना पड़ेगा।

कबीर साकतु ऐसा है जैसी लसन की खानि । ।

कोने बैठे खाईऐ परगट होइ निदान I।।

कबीर कहते हैं कि जो मनुष्य ईश्वर से विमुख है और जो दुनिया के माया मोह की खातिर अपने दीन, धर्म को गव्वों बैठा है, उसे यूँ समझना चाहिए जैसे लहसुन की भरी हुई कोठरी। क्योंकि लहसुन को कितना भी छुपाओ वह अपनी वाशना से प्रगट हो जाता है। इसी तरह विमुख के मुख से जो भी वचन निकलेंगे बुरे, भद्दे वचन ही निकलेंगे।

कबीर माइआ डोलनी पवनु झकोलन हारु।।

 संतहु माखनु खाइआ छाछि पीऔ संसारु ।।।।

कबीर कहते हैं कि इस दुनिया को दूध से भरी मटकी समझो और प्रत्येक जीव का स्वास-स्वास उसको बिलौनेवाली मथनी है,जिसको दूध बिलौने की जाच, तरीका आ गया था, जिन्हें परमात्मा के सिमरन का,जपने को इस माया का उपयोग आ गया, जिन्होंने दुनिया में रहकर भी अपने दीनधर्म को बचाए रखा, उन संत जनों ने दूध बिलोकर मक्खन पा लिया, वे धन्य हैं, उनका जन्म सफल हो गया और जिस दुनियावी ने छाछ ही पाई वह वंचित रह गया।

कबीर माइआ डोलनी पवनु वहै हिव धार।।

 जिनि बिलोइआ तिनि खाडआ अवर बिलोवनहार।।।।

बिलोनेवाली, बिलौनी हिलाई जा रही है। जिस भाग्यवान मनुष्य ने इस दूध को बिलौया है, उसने मक्खन खाया है और कई अभागे अभी तक लगातार बिलौए ही जा रहे हैं, उनको मक्खन प्राप्त ही नहीं होता, भाव जो लोग निर्बाह मात्र माया को मानते हैं और स्वास-स्वास परमात्मा को याद रखते हैं उनका जीवन शांतिपूर्वक गुजरता है। मानव जन्म के असली मनोरथ को प्राप्त कर लेते हैं। पर जो लोग दीन छोड़कर दुनिया के पीछे दौड़ते हैं वह भटकते रहते हैं और अपना जीवन व्यर्थ में गवाँ देते हैं।

कबीर माइआ चोरटी मुसि-मुसि लावै हाटि ।।

 एकु कबीरा ना मुसै जिनि कीनी बारह बाट ।। ।।

पद अर्थ : कबीर कहते हैं कि यह माया महा ठगनी है, ठग-ठग कर यह माया अपनी दुकान सजाती है। सिर्फ वो मनुष्य बचा रहता है, जिसने इस माया की बारह बाँट कर दिए हैं, इस ठगने से जिसने इस माया को टुकड़े-टुकड़े कर दिया है। मात्र एक कबीर इस ठगनी से नहीं ठगा गया क्योंकि उसने इसके बारह बँट (हिस्से) कर डाले ।

कबीर सूखु न ऐहु जुगि करहि जु बहुतै मीत।।

जो चितु राखहि एक सिउ ते सुखु पावाहि नीत।।।।

पद अर्थ : कबीर कहते हैं कि ‘दीन’ बिसार कर, परमात्मा को भुलाकरजो तू पुत्र, स्त्री, धन आदि जोड़ रहा है, इस जन्म में इनसे सुख नहीं मिलेगा। सिर्फ वही मनुष्य सदा सुखी रहते हैं जो दुनिया में विचरते हुए एक परमात्मा के साथ अपना मन लगाए रहते हैं।

कबीर जिसु मरने ते जगु डरै मेरे मनि आनन्दु ।।

मरने ही ते पाईऐ पूरनु परमानन्दु ।। ।।

कबीर कहते हैं कि जो मनुष्य दीन छोड़कर दुनिया में अपना मन रखता है और उसी को अपना सुख मानता है,उसे छोड़ नहीं सकता, अतः उनके त्याग से डरता है, जबकि इस मोह के त्याग से अर्थात् इनकी मौत से ही अर्थात् इनको छोड़कर ही परमात्मा मिलता है, जो मुकम्मल तौर पर आनंद स्वरूप है।

राम पदारथु पाइ कै कबीरा गांठि न खोल्ह।।

नही पटणु, नही पारखू, नही गाहकु नही मोलु।। ।।

: कबीर कहते हैं कि अच्छे भाग्य से जो परमात्मा के नाम की सुंदर वस्तु मिल गई है, तो अब औरों के सामने गठरी ना खोल। फिर दुनिया अपने में ही इतनी मस्त है कि ‘नाम” पदार्थ खरीदने के लिए ना कोई मंडी है, न कोई इस पदार्थ को परखनेवाला, न ही कोई इस वस्तु को खरीदना चाहता है और न ही कोई इतनी कीमत ही देने को तैयार है।

कबीर ता सिउ प्रीति करि जा को ठाकुरु रामु।।

पंडित राजे भूपती आवहि कउने काम ।। ।।

कबीर कहते हैं कि उस सतसंगी का साथ कर जो परमात्मा को अपना सब कुछ मानता है, जो सभी का मालिक है। पंडित हो या राजा हो, ये सब किसी काम के नहीं हैं, ये सब दुनिया के व्यापारी हैं।

कबीर प्रीति इक सिउ कीए आन दुबिधा जाइ ।।

भावै लांबे केस कर भावै घररि मुडाइ।। ।।

: कबीर कहते हैं कि यदि एक परमात्मा से प्यार किया जाए तो दुनिया की सभी दुविधाएँ, मुश्किलें दूर हो जाती हैं, सभी कष्टों का निवारण हो जाता है, लेकिन दुनिया की सभी मुश्किलें कभी दूर नहीं होतीं चाहे बड़ी-बड़ी जटा रखकर, या सिर मुंडाकर जंगलों में डेरा डाल लो, अपने आपको साधु कहा लो।

कबीर जगु काजल की कोठरी अंध परे तिस माहि ।।

हउ बलिहारी तिन कउ पैसि जु नीकसि जाहि ।। ।।

: कबीर कहते हैं कि दुनिया का मोह यूँ समझो जैसे कालिख भरी । कोठरी है, जिसमें अनजान बंदे जिनको दीन का इल्म नहीं है, अंधों की तरह गिर पड़ते हैं, लेकिन मैं उन लोगों पर बलिहारी जाता हूँ जो इस कोठरी में गिरकर भी फिर निकल आते हैं और कालिख का कोई असर नहीं होता अर्थात् वह दुनिया में रहकर दुनिया के मोह में नहीं पड़ते।

कबीर इहु तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि।।

 नांगे पावहु ते गए जिन के लाख करोरि।। ।।

: कबीर कहते हैं कि यह शरीर नष्ट हो जाएगा, अगर तुम इसे बचा सकते हो तो बचा लो। जिन लोगों के पास लाखों. करोड़ों रुपए जमा थे, वे भी यहाँ से नंगे पैर ही गए हैं अर्थात् सारी जिंदगी माया-मोह की खातिर भटकते रहे, दीन-धर्म को त्याग दिया, ईश्वर से मुँह मोड़ लिया, यह दुनिया तो यहीं रह गई और खुद कंगाल की तरह चले गए।

कबीर इहु तनु जाइगा कवनै मारगि लाइ ।।

कै संगति करि साध की कै हरि के गुन गाइ।।।

कबीर कहते हैं कि यह शरीर तो नष्ट हो जाएगा, इस का किसी काम में लगा ले, इसे किसी साधु की संगति में लगा या परमात्मा के नाम का गुण गा।

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