Yatindra Mishra ka Jeevan parichay | यतींद्र मिश्र का जीवन परिचय

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यतींद्र मिश्र का जीवन परिचय –

साहित्य और कलाओं के संवर्धन में विशेष सहयोग प्रदान करने वाले श्री यतींद्र मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के अयोध्या में सन् 1977 में हुआ। उन्होंने हिन्दी में एम. ए. की उपाधि लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से प्राप्त की। वे सन् 1999 से एक सांस्कृतिक न्यास ‘विमला देवी फाउंडेशन’ का भी संचालन कर रहे हैं। जिसमें साहित्य और कलाओं के संवर्धन और अनुशीलन पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उनको भारत भूषण अग्रवाल कविता सम्मान, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि अनेक पुरस्कारों से विभूषित किया जा चुका है। वर्तमान में वे स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ ‘सहित’ नामक अर्धवार्षिक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं।

यतींद्र मिश्र की प्रमुख रचनाएँ-

यतींद्र मिश्र के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ये हैं अयोध्या तथा अन्य कविताएँ, यदा-कदा, ड्योढ़ी पर आलाप। इसके अतिरिक्त उन्होंने शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी के जीवन और संगीत साधना पर एक ‘गिरिजा’ नामक पुस्तक लिखी है। उन्होंने रीतिकाल के अंतिम प्रतिनिधि कवि द्विजदेव की ग्रंथावली का सन् 2000 में सह-संपादन किया। उन्होंने कुँवर नारायण पर आधारित दो पुस्तकों और स्पिक मैके के लिए विरासत 2001 के कार्यक्रम के लिए रूपंकर कलाओं पर केंद्रित ‘थाती’ का भी संपादन किया।

यतींद्र मिश्र की साहित्यिक विशेषताएँ-

यतींद्र मिश्र ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज और संस्कृति के अनेक पहलुओं का चित्रण किया है। उन्होंने कविता, संगीत और अन्य ललित कलाओं को समाज के साथ जोड़ा है। उन्होंने समाज के अनेक भावुक प्रसंगों को बड़ी ही सहजता से शब्दों में पिरोया है। उनकी रचनाओं के माध्यम से समाज के निकटता से दर्शन होते हैं।

यतींद्र मिश्र की भाषा शैली-

यतींद्र मिश्र की भाषा सहज, प्रवाहमयी तथा प्रसंगों के अनुकूल है। उनकी रचनाओं में भावुकता और संवेदना का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। कृति को प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने लोक प्रचलित शब्दों के साथ-साथ सूक्तियों का भी प्रयोग किया है।

यतींद्र मिश्र की कविताएं –

  1. तुकाराम
  2. पानी की आवाज़ ,
  3. हारना ,
  4. ग्रामोफ़ोन का पुराना रेकार्ड ,
  5. एक ही आशय में तिरोहित ,
  6. रफू ,
  7. मसखरे ,
  8. अनहद के पार जाता हुआ घर ,
  9. कछुआ और खरगोश ,
  10. उलटबाँसी ,
  11. किवाड़ खटखटाना ,
  12. मिनियेचर पेंटिंग ,
  13. झील,
  14. पानी,
  15.  पत्ता और आदमी
  16. बारामासा
  17. बैजू बावरा
  18. गुर्जरी तोड़ी
  19. विभास
  20. कजरी
  21. सम्मोहित आलोक
  22. विकल्प
  23. बच्चा और झुनझुना
  24. तानसेन के बहाने
  25. सहगल का हारमोनियम
  26. टप्पा और पाकिस्तान

यतींद्र मिश्र जी ने तो २६ कविताये लिखी है उनकी एक कविता जो काफी पसंद की जाती है टप्पा और पाकिस्तान-

उस तरह तो नहीं थिरकता अब रेगिस्तान का आँगन

उस तरह कबीलों में घूमते नहीं ऊँटहार अपने ऊँटों के साथ

और वह अब तक की जानी-पहचानी लोकधुन

नहीं पिरोती पंजाब और सिंध का चमन

ये टप्पा गाने वाले

ये ऊँट चराने वाले

ये रेगिस्तान से गुज़रकर उधर

पाकिस्तान तक जाने वाले

ढूँढ़ने पर मुश्किल से मिलते हैं अब

और यही हाल उधर का भी हो गया है

रावलपिंडी से लेकर पेशावर लाहौर तक फैली

पंजाबी बोली और सुनहरी रेत को एक रंग करती

टप्पा गायकी खोने के कगार पर है

वैसे खोने के मामले में पूरा इतिहास ही बना डाला है हमने

जैसे पंजाब सिंध का यह सलोना संगीत

कहीं गहरे से याद दिलाता है कि खोने को तो

हम सरहदों में बँटी रिश्तों की लोनाई

खो आए अट्ठावन साल पहले

छोड़ आए दूर महाराष्ट्र के सांगली मिरज़ में

देश भर के लिए तानपूरा बनाने की कारीगरी

और यह पुश्तैनी धंधा बिसराकर

मिरज़ कुछ नया ही गढ़ता है इन दिनों

ऐसे में टप्पा एक सभ्यता को गाता

एक सभ्यता के लोप का प्रतीक बन गया है

ऐसे में शोरी मियाँ का शुरू किया यह गंगा जमुनी जहूरा

रेत में कहीं दम तोड़ने लगा है

शोरी मियाँ भी कहाँ जानते थे

जिस सहरा की भयावह रातों को

ख़ुशनुमा ढंग से काटने के लिए वे

चाँद-सितारों से सजा टप्पा बनाकर लाए थे

वह रातें तवारीख़ में बिखरी सियासतों ने

खींच कर लंबी कर दी हैं

ये टप्पा गाने वाले

ये ऊँट चराने वाले

सतरंगी पगड़ियाँ पहने वे

नेहरा लगाने वाली गोरियों को बुलाने वाले

पता नहीं कहाँ चले गए

पंजाब के घर-घर में मिलने वाले

छाछ और सरसों के साग की तरह

इन बोल बंदिशों पर वहाँ की सोहनियाँ

कैसे भूल गईं फुलकारी करना

भैरवी मुल्तानी बरवा और काफ़ी की पुकार

कहाँ जाकर डूबी पता नहीं लगता

सहरा में कि चिनाब में

अमृतसर में कि लाहौर के अनारकली बाज़ार में

अपने दम को साधे साईं के वे सच्चे बंदे

आजकल कहाँ गाते हैं मियाँ नज़रे नेईं आन्दा वे

छोटे-छोटे बादलों के समूह जैसे आपस में गुँथे हुए

हज़ारों छोटे-बड़े झरने एक ही मेरुखंड की धरती पर गिरते हुए

अपने में व्यस्त तत्परता से आगे

निकलती हुईं जैसे ढेरों तितलियाँ

वैसे ढेरों फुदकते लफ़्ज़ों की चाल में ढला टप्पा

महाराष्ट्र के नाट्यसंगीत से मिलकर

बंगाल और आगरा तक आया

इसने हमारे विरह और प्रेम को भी

संयम से बरतना सिखाया

इधर जयपुर अतरौली की गलियों में इसे

साधते रहे जीवन भर मंझी ख़ाँ

दूर लाहौर में अंतिम दिनों तक

गाती रहीं रोशनआरा बेग़म यही टप्पा

इधर भी संगीत और पंजाब की बोली-बानी

उधर भी यही हाल हर गायक फ़नकार का

इधर भी पाकिस्तान की सरगम भरी दुनिया

उधर भी गाने वाले अपनी मिट्टी की सोंधी गमक में महफ़ूज़

यह एक ऐसा समय था

जब षडज से निषाद तक की आवाजाही में

दिन में कई बार आपस में खुलते थे

दो घरानों के किवाड़

कई तरह से भरी जाती थी सरगम

तानों की घूमर जैसी तेज़ गोलाई में

कई-कई दिनों तक अबूझ रह जाता था

गाई जा चुकी बंदिश का मिसरा

आज यह टप्पा गुम हो गया है

दौड़-भाग से भरी ज़िंदगी

और उसी तरह भागते हुए बिना अर्थ के

शोर वाले संगीत में

फिर भी अनारकली बाज़ार से गुज़रते हुए

रोशनआरा बेग़म की तान जब-तब कानों में पड़ती है

तब याद आते हैं बरबस उस वक्त

जयपुर घराने के आकाश तले

मंझी ख़ाँ अपने हवेली संगीत से

टप्पा का अंग निकालते हुए

उस समय शोरी मियाँ यकीनन यही कहते मिलेंगे

ओ मियाँ वे जाने वाले तानूँ अल्ला दी क़सम, फेर आ

ये टप्पा गाने वाले

ये सहरा के आर-पार घर बसाने वाले

ये उर्दू पंजाबी हिन्दवी को दोस्त बनाने वाले

अपने ऊँटों पर बैठकर

न जाने किधर निकल गए?

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