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Bhagavad Gita Adhyay 14 Hindi English

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What Is Bhagvat Gita?

भगवद गीता अथ चतुर्दशोऽध्यायः


श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌ ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ (१)


भावार्थ : : श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! समस्त ज्ञानों में भी सर्वश्रेष्ठ इस परम-ज्ञान को मैं तेरे लिये फिर से कहता हूँ, जिसे जानकर सभी संत-मुनियों ने इस संसार से मुक्त होकर परम-सिद्धि को प्राप्त किया हैं। (१)

The blessed Lord spoke: Now Arjuna, I shall expose to you the most supreme and highest of all the wisdom in this universe by which all the great sages in this universe have achieved the highest perfection.

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ (२)


भावार्थ :इस ज्ञान में स्थिर होकर वह मनुष्य मेरे जैसे स्वभाव को ही प्राप्त होता है, वह जीव न तो सृष्टि के प्रारम्भ में फिर से उत्पन्न ही होता हैं और न ही प्रलय के समय कभी व्याकुल होता हैं। (२)

By fully learning, understanding and practising this wisdom, these sages have become a part of Me. As a result, they are not born at the time of creation nor do they pass away at the time of destruction of the universe.

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ (३)


भावार्थ : हे भरतवंशी! मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली योनि (माता) है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है। (३)

O Arjuna, you must realize that it is from Me that all creation steam. The great Brahma, The Lord of all creation acts as My womb when I plant the seed of creation from which all beings evolve.

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ (४)


भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! समस्त योनियों जो भी शरीर धारण करने वाले प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सभी को धारण करने वाली ही जड़ प्रकृति ही माता है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूपी बीज को स्थापित करने वाला पिता हूँ। (४)

The blessed Lord said: Dear Arjuna, know that whenever and wherever a being is born, I am his parents, that is, both his mother and father, who gave him life in this world.

सत्‌, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्‌ ॥ (५)


भावार्थ : हे महाबाहु अर्जुन! सात्विक गुण, राजसिक गुण और तामसिक गुण यह तीनों गुण भौतिक प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों के कारण ही अविनाशी जीवात्मा शरीर में बँध जाती हैं। (५)

Arjuna, that NATURE is made of three parts, namely: SATTVA (the light representing goodness); RAJAS (fire representing passion), and TAMAS (darkness representing evil). These bind down and limit the human mortal bodies from reaching true perfection and achieving the state of infinite Spirit and immortality.

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्‌ ।
सुखसङ्‍गेन बध्नाति ज्ञानसङ्‍गेन चानघ ॥ (६)


भावार्थ :हे निष्पाप अर्जुन! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के कारण पाप-कर्मों से जीव को मुक्त करके आत्मा को प्रकाशित करने वाला होता है, जिससे जीव सुख और ज्ञान के अहंकार में बँध जाता है।

Arjuna, understand these three natural elements: SATTVA, because it represents light and purity is a sign of good health, but binds the various beings in this world to worldly material happiness. This attachment also leads to lower knowledge, my friend.

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्‍गसमुद्भवम्‌ ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्‍गेन देहिनम्‌ ॥ (७)


भावार्थ :हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण को कामनाओं और लोभ के कारण उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण शरीरधारी जीव सकाम-कर्मों (फल की आसक्ति) में बँध जाता है। (७)

RAJAS, dear Arjuna, is that natural element representing passion which leads to material and worldly attachment. Rajas is known to bind the Soul of mortal men to action.

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌ ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ (८)


भावार्थ : हे भरतवंशी! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य (आज के कार्य को कल पर टालने की प्रवृत्ति) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)

But you should also know O Arjuna, that darkness and evil born out of the TAMAS GUNA, exists mainly because of the ignorance of man in this world. TAMAS creates laziness and dullness. One loses the value of time and no longer desires to work or to take part in constuctive action.

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥ (९)


भावार्थ :हे अर्जुन! सतोगुण मनुष्य को सुख में बाँधता है, रजोगुण मनुष्य को सकाम कर्म में बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढँक कर प्रमाद में बाँधता है। (९)

In reality O son of Kunti, SATTVA (or Goodness) binds one to happiness; RAJAS leads to attachment to action; and TAMAS (evil) leads one to be lazy, dull, unproductive and cause negligence due to one’s ignorance.

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ (१०)


भावार्थ :हे भरतवंशी अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण के घटने पर सतोगुण बढ़ता है, सतोगुण और रजोगुण के घटने पर तमोगुण बढ़ता है, इसी प्रकार तमोगुण और सतोगुण के घटने पर तमोगुण बढ़ता है। (१०)

At times O Arjuna, the first element of nature, SATTVA, rules over the other two GUNAS (powers of nature) known as RAJAS and TAMAS. However, at times the RAJAS part of human nature takes over and rules the SATTVA and TAMAS elements and similarly the TAMAS mode of nature may overpower the SATTVA and RAJAS modes of nature.

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ (११)


भावार्थ :जिस समय इस के शरीर सभी नौ द्वारों (दो आँखे, दो कान, दो नथुने, मुख, गुदा और उपस्थ) में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है, उस समय सतोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है। (११)

When the light of true knowledge and wisdom sorrounds and comes forth from one’s body, it is a sign that the SATTVA state of nature has occupied the body and taken over the person’s body, evidenced by his good actions (therefore he is known as a SATTVIC person).

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ (१२)


भावार्थ : हे भरतवंशीयों में श्रेष्ठ! जब रजोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है तब लोभ के उत्पन्न होने कारण फल की इच्छा से कार्यों को करने की प्रवृत्ति और मन की चंचलता के कारण विषय-भोगों को भोगने की अनियन्त्रित इच्छा बढ़ने लगती है। (१२)

When the RAJAS GUNA has taken over a being, then it can be seen through a person’s excessive greed, lust, unrest, activity and other similar action (therefore the person is known to be RAJAS).

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ (१३)


भावार्थ : हे कुरुवंशी अर्जुन! जब तमोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है तब अज्ञान रूपी अन्धकार, कर्तव्य-कर्मों को न करने की प्रवृत्ति, पागलपन की अवस्था और मोह के कारण न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति बढने लगती हैं। (१३)

Dullness, inactivity, laziness, negligence, ignorance, and sheer delusion about the world are all signs that the TAMAS elements have taken control of the person’s actions, behaviour, and thinking.

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्‌ ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ (१४)


भावार्थ : जब कोई मनुष्य सतोगुण की वृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है, तब वह उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल स्वर्ग लोकों को प्राप्त होता है। (१४)

If a being is SATTVIC at the time that his soul departs from his body, his soul goes to the purest regions of the universe where truth and goodness prevail. He is therefore reborn at these same, pure regions of the earth O Arjuna.

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्‍गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ (१५)


भावार्थ : जब कोई मनुष्य रजोगुण की बृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है तब वह सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों में जन्म लेता है और उसी प्रकार तमोगुण की बृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त मनुष्य पशु-पक्षियों आदि निम्न योनियों में जन्म लेता है। (१५)

Should a person be in the RAJAS state at the time of death, he is reborn in the places of the world where he is restless and constantly active. Similarly if a person is TAMASIC at the time of his death, he is reborn into a family of irrational behaviour, laziness and dullness.

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्‌ ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्‌ ॥ (१६)


भावार्थ : सतोगुण में किये गये कर्म का फल सुख और ज्ञान युक्त निर्मल फल कहा गया है, रजोगुण में किये गये कर्म का फल दुःख कहा गया है और तमोगुण में किये गये कर्म का फल अज्ञान कहा गया है। (१६)

The purity of SATTVA is characterized by the rewards that come out of good actions. However, the fruits of work that is done in the RAJAS state brings nothing but pain to a person; and work that is done in the TAMAS state, bears fruits of dullness and ignorance.

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ (१७)


भावार्थ : सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से निश्चित रूप से लोभ ही उत्पन्न होता है और तमोगुण से निश्चित रूप से प्रमाद, मोह, अज्ञान ही उत्पन्न होता हैं। (१७)

From the SATTVIC state of human nature one receives wisdom, from the RAJAS state arises greed, and form TAMAS evolves dullness and ignorance.

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ (१८)


भावार्थ : सतोगुण में स्थित जीव स्वर्ग के उच्च लोकों को जाता हैं, रजोगुण में स्थित जीव मध्य में पृथ्वी-लोक में ही रह जाते हैं और तमोगुण में स्थित जीव पशु आदि नीच योनियों में नरक को जाते हैं। (१८)

Those who are in the SATTVA state always follow the highest path or level of wisdom and intelligence; those who are in the RAJAS state always follow the middle level of intelligence and wisdom; and those who are under the influence of TAMAS from of human nature, always stoop to the lowest level of wisdom and knowledge and continually sink downwards along this path of ignorance.

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ (१९)


भावार्थ : जब कोई मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है और स्वयं को दृष्टा रूप से देखता है तब वह प्रकृति के तीनों गुणों से परे स्थित होकर मुझ परमात्मा को जानकर मेरे दिव्य स्वभाव को ही प्राप्त होता है। (१९)

When a true wiseman and seer fully understands that these three parts of nature are virtually the three main stages of life in this vast universe, he begins to also realize that which lies beyond these three conditions of nature, that is Myself. Thus once this is realized by any being they become an eternal part of Me the SUPREME LORD.

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्‌ ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ (२०)


भावार्थ :जब शरीरधारी जीव प्रकृति के इन तीनों गुणों को पार कर जाता है तब वह जन्म, मृत्यु, बुढापा तथा सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होकर इसी जीवन में परम-आनन्द स्वरूप अमृत का भोग करता है। (२०)

A person whose soul has risen above these three conditions of nature that actually lie within the mortal body, he becomes free from the cycle of birth and death as well as from sorrow and temporary happiness. He then enters into Me and thus becomes immortal.

अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्‍गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ (२१)


भावार्थ : अर्जुन ने पूछा – हे प्रभु! प्रकृति के तीनों गुणों को पार किया हुआ मनुष्य किन लक्षणों के द्वारा जाना जाता है और उसका आचरण कैसा होता है तथा वह मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों को किस प्रकार से पार कर पाता है?। (२१)

Arjuna then asked the Almighty Lord: How can one know if a particular being has gone beyond or has transcended the three powers of nature O Krishna? What is his way of life and how does he manage to reach beyond the SATTVA, RAJAS, and TAMAS modes of nature?

श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्‍क्षति ॥ (२२)


भावार्थ :श्री भगवान ने कहा – जो मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान रूपी प्रकाश (सतोगुण) तथा कर्म करने में आसक्ति (रजोगुण) तथा मोह रूपी अज्ञान (तमोगुण) के बढने पर कभी भी उनसे घृणा नहीं करता है तथा समान भाव में स्थित होकर न तो उनमें प्रवृत ही होता है और न ही उनसे निवृत होने की इच्छा ही करता है। (२२)

My dear Pandava (Arjuna), he who does not hate nor has any desire for light, (representing results which are born out of SATTVIC deeds), busy activity, and all that represents darkness whether they are near to him or far from him…

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्‍गते ॥ (२३)


भावार्थ : जो उदासीन भाव में स्थित रहकर किसी भी गुण के आने-जाने से विचलित नही होता है और गुणों को ही कार्य करते हुए जानकर एक ही भाव में स्थिर रहता है। (२३)

The Lord further explained: …He who sits apart undisturbed and unaffected by varying conditions of the environment and observes the world around him knowing and fully understanding that it is the power of nature that acts on all beings in this world…

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ (२४)


भावार्थ : जो सुख और दुख में समान भाव में स्थित रहता है, जो अपने आत्म-भाव में स्थित रहता है, जो मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को एक समान समझता है, जिसके लिये न तो कोई प्रिय होता है और न ही कोई अप्रिय होता है, तथा जो निन्दा और स्तुति में अपना धीरज नहीं खोता है। (२४)

He who dwells in his own self, who considers feelings of pain and pleasure as the same; to whom gold, soil, and stones are of equal worth; he who remains unchanged under pleasant and unpleasant circumstances; he who is beyond praise or blame, and he who is of firm and stable mind.

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ॥ (२५)


भावार्थ :जो मान और अपमान को एक समान समझता है, जो मित्र और शत्रु के पक्ष में समान भाव में रहता है तथा जिसमें सभी कर्मों के करते हुए भी कर्तापन का भाव नही होता है, ऎसे मनुष्य को प्रकृति के गुणों से अतीत कहा जाता है। (२५)

He who behaves the same in times of honour or in times of disgrace; who behaves the same with enemies and friends; and who has surrendered all desires for action as well as lust for rewards resulting from those actions.

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (२६)


भावार्थ : जो मनुष्य हर परिस्थिति में बिना विचलित हुए अनन्य-भाव से मेरी भक्ति में स्थिर रहता है, वह भक्त प्रकृति के तीनों गुणों को अति-शीघ्र पार करके ब्रह्म-पद पर स्थित हो जाता है। (२६)

And he who serves Me with an unfailing devotion, he is fit for becoming Brahman because he is gone beyond all the qualities (Gunas).

Bhagavad Gita Adhyay 15

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ (२७)


भावार्थ :उस अविनाशी ब्रह्म-पद का मैं ही अमृत स्वरूप, शाश्वत स्वरूप, धर्म स्वरूप और परम-आनन्द स्वरूप एक-मात्र आश्रय हूँ। (२७)

I am the abode of Brahman, the immortal, the immutable, the eternal (ever-lasting) dharma and absolute bliss.

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